प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी शास्त्र-ग्रंथ की बात जब उपदेशक कह रहा हो, तो ठीक से समझना चाहिए। जितना अपराध करना पाप है, उतना अति अपराध सहना भी पाप है। यदि कोई व्यक्ति छीना-झपटी करके पाप कर पॉप रहा है, और तुम उसे नहीं समझा पा रहे हो तो उसे बलपूर्वक समझाना चाहिए। नहीं तो उसके द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार के कारण सताए गए सीधे-सादे लोगों का पाप तुम्हें भी लगेगा। समर्थ व्यक्ति द्वारा असमर्थ व्यक्ति पर हो रहे अत्याचार-अन्याय का विरोध करना धर्म है। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में शनिवार को यह बात कही। व्यवहारिक अहिंसा महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक मंदिर में कथा हो रही थी। कथावाचक बड़े विद्वान थे। एक डाकू वहां कथा सुनने आया करता था। उसने सुना क्षमा, अहिंसा, मनुष्य के भूषण हैं। इसका कभी त्याग नहीं करना चाहिए। डाकू प्रभावित हुआ। कथा रोज सुनने लगा। कथा का समापन हुआ। विद्वान वक्ता अपनी दक्षिणा लेकर अपने स्थान को चल दिए। रास्ते में जंगल पड़ता था। वहां पहुंचे थे कि डाकू आ धमका। बोला महाराज जो आपके पास है वह सब मुझे दे दो। महाराज बड़े अनुभवी थे। उनके पास एक लाठी थी। निर्भीक भाव प्रकट करते उन्होंने लाठी संभाली और डाकू पर झपटे। बोले ले तुझे अभी रुपए देता हूं। महाराज के रौद्र रूप को देखकर डाकू घबरा गया। वह पीछे हटते हुए बोला- महाराजजी आपने तो कथा में कहा था कि अहिंसा का त्याग नहीं करना चाहिए। किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। आप तो मुझे मारने को तैयार हो गए। अपनी कथा के विरुद्ध आप यह क्या कर रहे हैं? महाराजजी ने कहा मूर्ख उसी कथा में मैंने यह भी कहा था- कि जो दुर्जन और दुष्ट हो, आततायी हो, सज्जनता की भाषा न समझता हो, उसे बलपूर्वक सदमार्ग पर लाना चाहिए। अर्जुन को भगवान ने दुष्टों से लड़ने के लिए कहा था। तूने वह कथा नहीं सुनी और इतनी जल्दी कैसे भूल गया? डाकू के पास बोलने के लिए कोई शब्द ही नहीं बचा। वह महाराजजी की मोटी लाठी की शक्ति को समझते हुए वापस हो गया।