महाकाल सवारी के बाद अब कुम्भ स्नान से हटेगा ‘शाही’:संत इस शब्द के विरोध में; अखाड़ा परिषद अध्यक्ष बोले- उर्दू नाम बदलेंगे

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महाकाल की सवारी में शाही शब्द पर आपत्ति के बाद अब कुम्भ के स्नान से शाही हटाने पर नई बहस छिड़ गई है। संत इस शब्द के विरोध में उतर आए हैं। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रविंद्र पुरी महाराज ने तो यह भी कह दिया है कि कुम्भ के स्नान से शाही शब्द हटाने की शुरुआत प्रयागराज से करेंगे। बता दें, प्रयागराज में पूर्ण कुम्भ मेला 13 जनवरी 2025 से प्रारंभ होगा। उज्जैन में कुम्भ 2028 में होना है। इस बहस की शुरुआत कहां से हुई, पहले संतों के ये बयान… सीएम ने कहा- बाबा महाकाल की राजसी सवारी सोमवार को महाकाल की सावन – भादो में निकलने वाली अंतिम सवारी निकाली गई। सीएम डॉ. मोहन यादव ने वीडियो जारी कर कहा, ‘आज उज्जैन में बाबा महाकाल की राजसी सवारी निकल रही है।’ विद्वानों ने शाही शब्द पर आपत्ति उठाई। यही बहस अब कुम्भ के आयोजन तक पहुंच गई है। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रविंद्र पुरी महाराज ने दैनिक भास्कर से बातचीत में कहा, ‘सीएम मोहन यादव ने अच्छी शुरुआत की है। हम इसको आगे बढ़ाएंगे।’ बता दें, उज्जैन, प्रयागराज, हरिद्वार और नासिक जैसे शहरों में कुम्भ के आयोजन होते हैं। इस दौरान शाही स्नान के लिए साधु-संत, श्रद्धालु पहुंचते हैं। प्रयागराज में अगले साल कुम्भ, शाही स्नान की तारीखें घोषित उज्जैन में सिंहस्थ कुम्भ 2028 में होगा। इससे पहले प्रयागराज में पूर्ण कुम्भ मेला आयोजित होगा। इसका आयोजन 13 जनवरी से 24 अप्रैल, 2025 तक किया जाएगा। कुम्भ का आयोजन हर 12 साल में एक बार होता है। 2013 में प्रयागराज में कुंभ मेले का आयोजन हुआ था। प्रयागराज कुम्भ की शाही स्नान की तारीखों का ऐलान हो चुका है। मकर संक्रांति 14 जनवरी 2025, मौनी अमावस्या 29 जनवरी 2025, बसंत पंचमी 3 फरवरी 2025, माघी पूर्णिमा 12 फरवरी 2025, महाशिवरात्रि 26 फरवरी 2025 को शाही स्नान होंगे। अब देखना होगा कि संत समाज इस स्नान को क्या नाम देते हैं। सिंहस्थ 2016 में 5 करोड़ श्रद्धालु आए थे उज्जैन में 2016 में हुए सिंहस्थ कुम्भ में एक महीने के दौरान शहर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 5 करोड़ आंकी गई थी। सिंहस्थ 2016 के प्रतिवेदन की मानें तो सिंहस्थ 2028 में यह आंकड़ा बढ़कर 15 करोड़ होने की संभावना है। इसे देखते हुए हर तरफ विस्तार के काम किए जा रहे हैं। जानिए, अखाड़ा क्या होता है? पहले आश्रमों के अखाड़ों को बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहते थे। जत्थे में पीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगलकाल से शुरू हुआ। हालांकि, कुछ ग्रंथों के मुताबिक अलख शब्द से ही ‘अखाड़ा’ शब्द की उत्पत्ति हुई, जबकि धर्म के जानकारों के मुताबिक साधुओं के अक्खड़ स्वभाव के चलते इसे अखाड़ा नाम दिया गया है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने धर्म प्रचार के लिए भारत भ्रमण के दौरान इन अखाड़ों को तैयार किया था। देश में फिलहाल शैव, वैष्णव और उदासीन पंथ के संन्यासियों के मान्यता प्राप्त कुल 13 अखाड़े हैं। पंच परमेश्वर करते हैं महामंडलेश्वर का फैसला अखाड़े का संचालन अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, उप सचिव, मंत्री, उप मंत्री, कोतवाल, थानापति आदि पदाधिकारियों के जरिए होता है। अखाड़े में 15-20 वर्ष समर्पित भाव से काम करने वाले पदाधिकारी बनाए जाते हैं। इनका चयन चुनाव के जरिए होता है। पांच वरिष्ठ व विद्वान सदस्यों को पंच परमेश्वर की उपाधि दी जाती है। अखाड़े के आश्रम, मठ-मंदिर, गुरुकुल का संचालन यही करते हैं। महामंडलेश्वर किसे बनाना है किसे नहीं? इसका निर्णय यही लेते हैं। अखाड़ों के पदाधिकारी व पंच परमेश्वर सभी संतों पर नजर रखते हैं। जिन संतों की शिकायत मिलती है और उनकी गतिविधि संदेहास्पद रहती है। वहां संबंधित अखाड़े के सचिव, मंत्री, संयुक्त मंत्री स्तर के पदाधिकारी को भेजा जाता है। जहां का मामला होता है, वहां 15 से 20 दिन प्रवास करते हैं। बाहर रहकर सारी जानकारी एकत्र करते हैं। संदिग्ध संत के आश्रम में कुछ दिनों तक प्रवास करके समस्त गतिविधियों पर नजर रखते हैं। इसके बाद रिपोर्ट अखाड़े के प्रमुख को देते हैं। इस रिपोर्ट को अखाड़े के पंच परमेश्वर के समक्ष रखा जाता है। सारे पहलुओं पर चर्चा करने के बाद निष्कासन या नोटिस देने की कार्रवाई की जाती है।