देश विदेश में पांढुर्णा की पहचान गोटमार मेले के बिना अधूरी है। आस्था और सदियों से चली आ रही इस परंपरा को खूनी खेल के नाम से भी जाना जाता है। यह पत्थरों का खेल पांढुर्णा की जाम नदी की पुलिया पर खेला जाता है। मंगलवार को यह मेला आयोजित हो रहा है। इसमें पांढुर्णा और सावरगांव के लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं और अपना लहू बहाकर सदियों से चली आ रही गोटमार की इस परंपरा को कायम रखते हैं। यह गोटमार मेला प्रतिवर्ष पोला त्यौहार के दूसरे दिन जाम नदी पर खेला जाता है। एक दिन पहले हुई पत्थरबाजी 3 सितंबर की सुबह 10 बजे शुरू होने वाला गोटमार मेला एक दिन पहले 2 सितंबर की शाम से शुरू हो गया। पोला त्यौहार खत्म होते ही पांढुर्णा और सावरगांव के लोगों ने एक दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर दिया। यह खेल लगभग 2 घंटे तक चला, लेकिन अंधेरा होने से दोनों तरफ के लोग अपने अपने घर लौट गए। तब जाकर लोगों का इस मार्ग से आवागमन शुरू हो पाया। सोमवार को हुए इस खेल में 10 से अधिक लोग घायल हुए हैं। जिनका सिविल अस्पताल में इलाज जारी है। चंडी माता के नाम से होता है आगाज गोटमार मेले की शुरुआत चंडी माता के नाम से होती है। सबसे पहले गोटमार खिलाड़ी चंडी माता मंदिर पहुंचकर पूजा-अर्चना करते हैं। इसके बाद जाम नदी के बीच पेड़ को लगाया जाता है। फिर गोटमार खिलाड़ी जाम नदी पहुंचकर एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार करते हैं। दो परंपराओं में विभक्त है गोटमार मेला
पहली परंपरा
पहली परंपरा का मामला पिंडारी ( आदिवासी ) समाज से जुड़ी है। प्राचीन मान्यता के अनुसार हजारों साल पहले जाम नदी के किनारे पिंडारी समाज का प्राचीन किला था। जहां पिंडारी समाज और उनकी शक्ति शाली सेना निवास करती थी। जिसका सेनापति दलपत शाह था। लेकिन महाराष्ट्र के भोसले राजा की सेना ने पिंडारी समाज के किले पर हमला बोल दिया। इस दौरान पिंडारी समाज के अस्त्र-शस्त्र कम होने से पिंडारी समाज की सेना ने पत्थरों से हमला कर दिया। इस हमले से भोसले राजा परास्त हाे गया। तब से यहां पत्थर मारने की परंपरा चली आ रही है।। सेनापति का बदला , बने राजा जाटबा, नपा में दर्ज वार्ड का नाम
इस युद्ध के बाद जनता ने सेनापति दलपत शाह का नाम बदलकर राजा जाटबा नरेश कर दिया। आज भी इस जाटबा राजा की समाधि मौजूद है। जिस इलाके में समाधि मौजूद है। उस इलाके का नाम पांढुर्णा नगर पालिका में जाटबा वार्ड के नाम से दर्ज है। इस वार्ड में 600 लोगों की आबादी आज भी निवास करती है। दूसरी परंपरा
बुजुर्गों के अनुसार सावरगांव की युवती और पांढुर्णा का युवक एक दूसरे से प्रेम करते थे। दोनों विवाह करना चाहते थे। लेकिन दोनों पक्ष इन दोनों की प्रेम कहानी से आक्रोशित थे। पोला त्यौहार के दूसरे दिन भद्रपक्ष अमावस्या की अलसुबह दोनों विवाह के बंधन में बंधने के लिए भाग निकले। लेकिन जाम नदी की बाढ़ ने उनका रास्ता रोक दिया। फिर भी दोनों नदी पार करने की कोशिश करते रहे। जब इसकी भनक दोनों पक्षों को लगी तो लोग नदी किनारे जमा हो गए। आक्रोशित भीड़ ने दोनों प्रेमी युगल पर पत्थरों से बौछार की। जिससे दोनों युवक-युवती की मौत हो गई। इसलिए प्रेमी युगल की याद में गोटमार का खेल खेला जाता है। सांबारे परिवार में हुई 3 मौतें, सहम गया था परिवार
इस खूनी खेल में सांबारे परिवार अपने 3 सदस्यों को खो चुका है, इनमें घर के मुखिया शामिल थे। मृतकों में 22 अगस्त 1955 में सबसे पहले महादेव सांबारे की मौत हुई थी। दूसरी मौत 24 अगस्त 1987 में कोठिराम सांबारे और 4 सितंबर 2005 में जनार्दन सांबारे की मौत हुई थी। अब तक 13 लोगों ने गंवाई जान दैनिक भास्कर की टीम ने इस गोटमार मेले में मरने वालों संख्या की जानकारी हासिल की तो चौंकाने वाली बात सामने आई है। इस मेले में पत्थरों के बौछार से वर्ष 1995 से 2023 तक 13 लोगों ने अपनी जान गंवाई है। जिसका रिकॉर्ड आज भी मौजूद है। खूनी खेल में 13 लोगों ने गंवाई जान 4 पीढ़ियों से कावले परिवार करता है झंडे को स्थापित
गोटमार मेले में पलाश रूपी झंडे का काफी महत्व है। जिसे जाम नदी के बीचों बीच स्थापित किया जाता है। इस झंडे को जंगल से लाने की परंपरा 4 पीढ़ियों से सावरगांव निवासी सुरेश कावले का परिवार करता है। एक साल पहले जंगल में जाकर उस पलाश रूपी झंडे को चिन्हित किया जाता है। पोला त्योहार के एक दिन पहले इस पलाश रूपी झंडे को सुरेश कावले के घर लाया जाता है। गोटमार के दिन अलसुबह उस झंडे को जाम नदी में स्थापित किया जाता है। जाने मेले में ऐसे तैयार रहेगा स्वस्थ्य और पुलिस का अमला प्लास्टिक की गेंद का भी हुआ इस्तेमाल ,लेकिन चले पत्थर
छिंदवाड़ा प्रशासन द्वारा इस मेले का स्वरूप बदलने को लेकर काफी प्रयास किए हैं। वर्ष 2001 में प्रशासन ने पत्थरों के स्थान पर प्लास्टिक के बॉल का जाम नदी पर बिछाई गई। ताकि पत्थर मारने की प्रथा बंद हो सके। लेकिन गोटमार खेलने वाले खिलाड़ियों ने प्लाटिक और रबर के बॉल को नदी में फेंककर फिर से एक दूसरे पर पत्थर मारकर गोटमार शुरू कर दी थी। जिससे प्रशासन की सभी उम्मीद और तैयारी पर पानी फेर गया था। भगवान भी होते हैं मंदिर में कैद :
गोटमार मेले के 3 दिन तक जाम नदी के किनारे स्थापित मंदिर के भगवान राधा कृष्ण की मूर्ति और पूरे मंदिर को भी कैद किया जाता है। दरअसल इस मंदिर पर पत्थर गिरने से मंदिर समिति के लोग मंदिर को टाटियों से ढक देते हैं ताकि कोई नुकसान न हो सके। यही हाल जाम नदी के आसपास निवास करने वाले लोगों का है। उनके मकान को भी ढका जाता है। 1978 ओर 1987 में चली गोलियां, दो की मौत इस खूनी खेल को बंद कराने के लिए प्रशासन ने काफी सख्त कदम उठाकर पुलिस ने गोलियां भी बरसाई थी। यह गोलीकांड 1978 और 1987 में हुआ था, जिसमें 3 सितंबर 1978 को ब्रह्माणी वार्ड के देवराव सकरडे और 1987 में जाटवा वार्ड के कोठीराम सांबारे की गोली लगने से मौत हुई थी। इस दौरान पांढुर्णा में कर्फ्यू जैसे हालात बने थे। वहीं पुलिस की ओर से लाठी चार्ज भी हुआ था।