इंदौर के शंकराचार्य मठ में सावन के प्रवचन:प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति में आसक्त न होना ही राम और कृष्ण की प्रवृत्ति- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज

Uncategorized

भगवान शंकर निवृत्ति धर्म के आचार्य हैं। श्रीराम-श्रीकृष्ण प्रवृत्ति धर्म का आदर्श बतलाते हैं कि निर्विकार होकर प्रवृत्ति करो। श्रीराम-श्रीकृष्ण प्रवृत्ति में रहते हैं, फिर भी अंदर से उनकी निवृत्ति है। सभी प्रकार की प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति में आसक्त न होना ही राम और कृष्ण की प्रवृत्ति है। लेकिन इनकी प्रवृत्ति निवृत्ति के ही समान है। भगवान शंकर कहते हैं, जिन्हें ब्रह्मानंद प्राप्त करना है, उनके निवृत्ति से रहना पड़ेगा। प्रवृत्ति में रहकर भजनानंद में मिलना असंभव है। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने शुक्रवार शाम को यह बात श्रावण मास के दौरान चल रहे रामचरित मानस के प्रवचन में कही। कचराघर में इत्र की सुगंध नहीं आती डॉ. गिरीशानंदजी कहते हैं कि जिस तरह कचराघर में इत्र की सुगंध नहीं आती, ठीक इसी तरह भजनानंद लेना हो तो विषयानंद छोड़ना पड़ेगा। निवृत्ति का आनंद लेना हो तो प्रवृत्ति छोड़ना पड़ेगी। पूरे दिन जो संसार में ही फंसा हुआ है, उसे आनंद नहीं मिलता। भक्ति और प्रवृत्ति आपस में विरोधी है। भगवान शंकर कहते हैं भक्ति में प्रवृत्ति बाधक है, इसलिए निवृत्ति ग्रहण करके परमात्मा का ध्यान करें। श्रीराम श्रीकृष्ण प्रवृत्ति में रहते हैं पर वे प्रवृत्ति में लिप्त नहीं रहते। शिवजी प्रवृत्ति से दूर रहते हैं। इसलिए तो उनके अधिक अवतार नहीं होते। भगवान शंकर को अवतार धारण करने की इच्छा ही नहीं होती। उनको संसार में आना अच्छा नहीं लगता। क्योंकि जो संसार में आता है, उसे माया छल ही लेती है। माया से दूर रहना ही निवृत्ति धर्म का आदर्श है। पर माया के साथ रहने पर माया में आसक्त न होना ही श्रीराम और श्रीकृष्ण बतलाते हैं। हमेशा तामसी होता है सामान्य मनुष्य का ज्ञान महाराजश्री बताते हैं कि सामान्य मनुष्य का ज्ञान हमेशा तामसी होता है, क्योंकि प्रत्येक जीव बंधन में बंधे होने के कारण तमोगुण से ही उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति प्रमाणों से शास्त्रीय आदेशों से ज्ञान अर्जित नहीं करता, उसका ज्ञान केवल शरीर तक ही सीमित रहता है। क्योंकि उसे शास्त्रों के आदेश अनुसार कर्म करने की चिंता नहीं होती। उसके लिए केवल धन ही ईश्वर है। और ज्ञान का अर्थ शारीरिक आवश्यकताओं की तुष्टि है इन बुद्धिजीवियों का परम सत्य से कोई संबंध नहीं होता। वे तो मात्र पशुवत जीवन ही जी रहे हैं। इसलिए शास्त्र मर्यादाओं को दरकिनार रखकर केवल दिखावे के लिए सनातनी परंपराओं का तोड़ मरोड़कर सनातन के नाम पर धार्मिक आस्था का शोषण कर केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे हैं। इसके कारण जन मानस सत्य सनातन धर्म को ठीक से समझ नहीं पा रहा है। और न ही उसके आध्यात्मिक अनुभवों का लाभ लेता रहा है। यदि परमात्मा के बताए नियमों, आदर्श चरित्रों को ठीक तरह से समझें तब ही सनातनी परंपराओं को जानकर सुखी जीवन प्राप्त कर सकते हैं।