कबीरदास ने भी कहा है- जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान…। मतलब साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिए, बल्कि उनका ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। इसीलिए व्यक्ति का रंग, रूप, आकार, अमीरी-गरीबी नहीं वरन उसकी ज्ञान देखना चाहिए। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने विशेष प्रवचन में शनिवार को यह बात कही। राजा जनक इसलिए कहलाए ‘विदेह’ महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक समय राजा जनक ने अपनी सभा में विद्वानों से पूछा कि आप ऐसी कोई युक्ति बताएं, जिससे दो घंटे में ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाए। सभा में सभी विषयों के विद्वान उपस्थित थे, पर कोई भी राजा के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। अष्टावक्र जी बाहर गए हुए थे, वे घर लौटे तो उन्होंने अपनी माता से पूछा- पिताजी कहां गए। माता ने जवाब दिया राजा जनक की सभा में गए हैं। अष्टावक्र भी वहां पहुंच गए। उनके शरीर में आठ जगह टेढ़ी गांठ देखकर लोग हंसने लगे। सभासदों को हंसते देखकर अष्टावक्र को न तो उनसे घृणा हुई, न क्रोध आया। बालकों की तरह अपनी मस्ती में मस्त होकरवे भी ठहाका लगाकर हंसने लगे। सभासदों ने अष्टावक्रजी से पूछा- तुम किसलिए हंस रहे हो? अष्टावक्रजी ने सभासदों से कहा- कि आप लोग किसलिए हंस रहे थे? तब वे लोग बोले- आपके टेढ़ेमेड़े शरीर को देखकर हंसी आ गई। अष्टावक्रजी ने कहा हाड़-मांस के ग्राहकों की सभा देखकर मुझे भी हंसी आ गई, क्योंकि तुमने मेरा ज्ञान न देखकर केवल शरीर देखा। राजा जनक को आश्चर्य हुआ और वे अष्टावक्र की निष्पृहता देखकर उनके पैर में गिर गए और क्षमा मांगने लगे। अष्टावक्र जी ने कहा तुम मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु दे दो। जनक ने पूछा- राज्य दे दूं। अष्टावक्र बोले- राज्य नहीं तुम मुझे अपना मन दे दो। राजा जनक ने संकल्पात्मक मन उन्हें दे दिया। मन देने के बाद बाकी क्या रहा। तभी से राजा जनक विदेह कहे जाने लगे।