स्वावलंबी व्यक्ति हमेशा सुखी रहता है। जो दूसरों पर आश्रित रहता है, वह जिंदगी में कुछ नहीं कर सकता। केवल अपने भाग्य को कोसता रहता है। दूसरों की निंदा करता रहता है। इसलिए हमेशा व्यक्ति को अपने कर्म में लगे रहना चाहिए। भाग्य और कर्म एक सिक्के के दो पहलू हैं। कभी-कभी भाग्य प्रबल नहीं होने के कारण व्यक्ति कर्म करता है और असफल हो जाता है। इस असफलता के कारण वह कर्म करना ही बंद कर देता है। जिसके कारण जब भाग्य प्रबल होता है तब असफल हो जाता है। इसलिए कर्म निरंतर करते रहना चाहिए। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में रविवार को यह बात कही। कर्म छोड़कर दूसरों पर दोष मढ़ना गलत महाराजश्री ने बताया कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई। कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥… अर्थात – व्यक्ति जब परलोक में दुःख पाता है, तो सिर पीट-पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर काल, कर्म और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥ दूसरों पर आश्रित रहना मृत के समान डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने कहा किसी को नहीं मालूम होता है कि उसका भाग्य कब प्रबल हो जाए। एक बार तो वह भाग्य प्रबल नहीं होने के कारण असफल होता है, जब भाग्य प्रबल होता है तो वह कर्म नहीं करने के कारण असफल हो जाता है। कहावत है आस पराई जो तपे होते ही मर जाए… जो दूसरों पर आश्रित रहता है, उसे जन्म लेते ही मर जाना चाहिए। क्योंकि वह होते हुए भी मरे के समान ही है। दो प्यासे पुकारते रह गए, तीसरा तब तक झरने तक पहुंच गया महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- तीन व्यक्ति थे। जंगल में जा रहे थे। पहाड़ी मिली। रास्ता लंबा था। धूप में थकान के कारण उनके मुंह सूखने लगे। प्यास से व्याकुल हो गए। उन्होंने चारों ओर देखा, पर वहां पानी नहीं था। एक झरना बहुत गहराई में बह रहा था। एक पथिक ने आवाज लगाई, भगवान हमारी सहायता करो। हम तक पानी पहुंचा दो। दूसरा इंद्र देव को पुकारने लगा। हे इंद्र देव मेघमाला ला दो, जल बरसा दो। तीसरे ने किसी से कुछ नहीं मांगा। वह पहाड़ी की चोटी से नीचे उतरा। तलहटी पर बहने वाले झरने तक जा पहुंचा। भरपूर पानी पिया। अपनी प्यास बुझाई। निकम्मे उन दो प्यासों की आवाजें अभी भी सहायता के लिए पुकारती हुई, पहाड़ी को प्रतिध्वनित कर रही थी। जिसने किसी को नहीं पुकारा, कर्म किया और झरने का जल पीकर प्यास बुझाई। इस तरह वह आगे चलने में समर्थ हो गया। रामचरित मानस में लिखा है- सकल पदारथ है जग माही, कर्महीन नर पावत नाही… संसार में सब सुलभ है, पर कर्महीन उन्हें नहीं पाते और भाग्य को दोष देते रहते हैं।