जीवन में व्यक्ति केवल अपने निर्धारित कर्तव्य, कर्म निष्ठापूर्वक करते रहें तो उसे आध्यात्मिक शक्ति स्वत: ही प्राप्त हो जाती है। इससे व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, देश, राज्य सभी के लिए महत्वपूर्ण और सम्माननीय हो जाता है। उसे किसी तप-साधना की आवश्यकता नहीं होती। उसका कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना ही साधना और तप के समान हो जाता है। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने प्रवचन में सोमवार को यह बात कही। तप-साधना से बढ़कर है सेवा महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक कौशिक नाम के तपस्वी ब्राह्मण थे। तप के प्रभाव से उन्हें आत्मबल प्राप्त हो गया था। एक दिन वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। तभी चिड़िया ने उन पर बीट कर दी। उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने चिड़िया को देखा, तो चिड़िया भस्म होकर वृक्ष के नीचे गिर गई। ब्राह्मण को अपने आप पर गर्व हो गया। दूसरे दिन वे एक गृहस्थ के घर भिक्षा मांगने गए। गृह स्वामिनी गृहस्थ को भोजन परोस रही थी। उसने कहा भगवन ठहरो, अभी आपको भिक्षा दूंगी। इस पर उन्हें क्रोध आ गया- यह मेरी उपेक्षा कर रही है, पति को अधिक महत्व दे रही है। गृह स्वामिनी ने दिव्य दृष्टि से सब जान लिया। उसने कहा- ब्राह्मण देवता मैं चिड़िया नहीं हूं। मैं कर्तव्य पूरा करने पर ही आपकी सेवा करूंगी। फिर क्या था, ब्राह्मण अपने क्रोध को ही भूल गया। सोचा इसे यह बात कैसे पता चली। तब गृह स्वामिनी ने कहा- यह तो पति की सेवा का फल है। और अधिक जानना हो तो मिथिलापुरी में तुलाधार वैश्य के पास जाइए। कौशिक वहां गए, तुलाधार ने उन्हें नाम से संबोधित करते हुए प्रणाम किया। कहा कि आपको गृहस्थ की गृहस्वामिनी ने भेजा है। अपना काम कर लूं, थोड़ी देर आप बैठिए। ब्राह्मण विचार करने लगा, इसे मेरा नाम और किसने भेजा, कैसे पता चला। जब वैश्य ने काम कर लिया तो कहा- महाराज में उचित मुनाफा लेता हूं। ईमानदारी के साथ लोकहित की दृष्टि से व्यवसाय करता हूं। इसी से मुझे दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है। अब आपको और जानना हो तो मगध के चांडाल के पास जाइए। कौशिक चांडाल के पास गए। वह झाड़ू लगा रहा था। उसने कौशिक को साष्टांग प्रणाम किया। कहा भगवन- आप चिड़िया मारने जितना तप करके उस सद्गृहस्थ देवी और तुलाधार वैश्य के यहां से होते हुए यहां पधारे हैं। यह मेरा सौभाग्य है। मैं अपना नियत काम कर लूं, फिर आपसे बात करूंगा। तब तक आप विश्राम कीजिए। चांडाल ने जब अपना काम कर लिया तो ब्राह्मण को अपने साथ ले गया। अपने माता-पिता को दिखाकर ब्राह्मण से कहा- अब मुझे इनकी (माता-पिता की) सेवा करनी है, मैं निरंतर माता-पिता के सेवा कर्म में लगा रहता हूं। इसी से मुझे दिव्य दृष्टि मिली है। तब कौशिक की समझ में आया कि केवल तप साधना से ही नहीं, वरन नियत कर्तव्य- कर्म निष्ठापूर्वक करते रहने से ही आध्यात्मिक लक्ष्य पूरा हो सकता है और सिद्धियां मिल सकती हैं।