आशा ही सबसे बड़ा दु:ख और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है। ऐसा व्यक्ति जिसे कोई आशा नहीं होती, कुछ मिल जाए तो सुखी नहीं होता, कुछ न मिले तो दु:खी नहीं होता। यह सब कामना के परित्याग से ही संभव है। इसीलिए कामना को तजो, भगवान को भजो, जो भाग्य में होगा मिल जाएगा। जो परमानंद कामना से नहीं मिलता वह कामना त्यागकर भगवान के भजन से मिल जाता है, फिर जीव के सामने दु:ख का कोई कारण ही नहीं होता और वह हमेशा के लिए सुखी हो जाता है। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में शुक्रवार शाम यह बात कही। आशाएं त्यागते ही हुआ सुख का अनुभव महाराजश्री ने एक कहानी सुनाई। एक व्यक्ति ने इस आशा से कि मैं जुए में पारंगत हूं, कई जुआरी आएंगे और मैं बहुत-सा धन प्राप्त कर लूंगा। उसने एक राजमहल का सौदा तय कर लिया। जो धन पास में था वह अग्रिम दे दिया और कहा मैं कल पूरा दे दूंगा, नहीं तो सौदा समाप्त समझा जाए। अब उस जुआरी को रातभर नींद नहीं आई कि कल पता नहीं जुआ में कितना पैसा आएगा। आधी रात को आने वाले जुआरी जुआ खेलने ही नहीं आए। आशा में उसकी सारी रात निकल गई और उसने जुआरियों के आने की आशा त्याग दी। इसके साथ ही महल की भी आशा त्याग दी। तब उसे सुख का अनुभव हुआ। आशा ही दु:ख और पापों की जड़ डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने कहा वास्तव में आशा ही दु:ख और पापों की जड़ है। गीता में अर्जुन ने भगवान से पूछा- कि मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी वह किसकी प्रेरणा से पाप करता है। भगवान ने कहा व्यक्ति की कामनाएं ही पाप का कारण है। जितने भी व्यक्ति नरक की यातनाएं सह रहे हैं, जिनके चित्त में भय उत्पन्न हो रहा है, जो अनिच्छा से भी पाप कर लेते हैं, उसका कारण उनके भीतक की कामना ही है। निराशा से उत्पन्न वैराग्य ही परम सुख महाराजश्री ने कहा कामना प्रत्येक अवस्था में दुख का अनुभव कराती है। किसी को संतान न हो तो संतान होने की लालसा का दुख, हो जाए तो पालन-पोषण, विद्या, विवाह आदि की चिंता का दु:ख, मृत्यु हो जाए तो बिछोह का दु:ख, कामना रहने पर प्रत्येक हालत में दु:खी ही होगा। जिस तरह आशा दु:ख का कारण है, ठीक उसी प्रकार निराशा से उत्पन्न वैराग्य ही परम सुख है। जिस तरह जुआरी ने आशा त्याग दी तो वह सुखी हो गया।