इंदौर के शंकराचार्य मठ में प्रवचन:किंतु-परंतु में उलझे रहने वाले व्यक्तियों को भोगना पड़ता है कष्टमय जीवन- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज

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भागवत महापुराण में लिखा है- यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परं गत:। तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्नात्यन्तरितो जन:॥…अर्थात जो व्यक्ति अत्यंत मूढ है या काफी बुद्धिमान है, ऐसे व्यक्ति का जीवन सुखमय बताया जाता है, क्योंकि मूर्ख पुरुष तो जो एक बार रास्ता बता दिया जाए वह उसी पर चलता है, उसमें ही उसका कल्याण होता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी बुद्धि के विकास से कल्याण का रास्ता स्वयं बना लेता है। इसलिए दोनों का जीवन सुखी होता है। कष्टमय जीवन तो उन लोगों को भोगना पड़ता है जो बीच के होते हैं, न मूर्ख होते हैं न बुद्धिमान होते हैं। वे हमेशा किंतु-परंतु करते रहते हैं। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में शनिवार शाम यह बात कही। सत्य की ताकत से एक चोर बन गया लोकमान्य पुरुष महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक व्यक्ति चोरी किया करता था, चोरी के साथ-साथ उससे और भी अनर्थ हो जाते थे। यह उसकी मजबूरी थी, क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त कोई साधन ही नहीं था। जब वह चोरी करने रात को निकलता तो देखता कि रास्ते में सत्संग हो रहा है, बहुत लोग इकट्ठे होकर सुन रहे हैं। वह भी भीड़ में बैठकर कभी-कभी सत्संग सुन लेता। धार्मिक चर्चा सुनते-सुनते उसके दिमाग में उथल-पुथल होने लगी। एक दिन वह चोर महात्माजी के पास एकांत में आया और कहने लगा महात्मा जी, आपके प्रवचन सुन-सुनकर मेरा सिर चकराने लगा है। कभी आप त्याग की प्रशंसा करते हैं, कभी अहिंसा की, कभी दान की तो कभी सत्य की, आपने तो मुझे उलझन में डाल दिया। आप कोई एक बात बताइए, जिससे मेरा कल्याण हो जाए। तो मैं आपसे दीक्षा ले लूं। महात्माजी ने कहा- ठीक है, तुझे एक रास्ता बताता हूं- तू सत्य बोला कर। वह व्यक्ति बोला- आप मुझे दीक्षा दे दीजिए। मैं आज से सत्य ही बोलूंगा। वह आगे बढ़ा, राजभवन की ओर सिपाही ने पूछा- तू कौन है, तो उसने कहा मैं चोर हूं। सिपाहियों ने सोचा कि कोई चोर भी ऐसा कहता है कि मैं चोर हूं, पर वह तो सत्य कह रहा था। वह राजभवन में से एक अच्छा घोड़ा लेकर आ गया। रक्षक समझे कि यह कोई अधिकारी है। उसने घोड़ा लाकर एक आश्रम में बांध दिया। प्रात: होते ही राजभवन में शोर मचा कि महाराज का घोड़ा चोरी हो गया। महाराज का वह प्रिय घोड़ा था। महल के रक्षक घोड़े के पांव के निशान देखते-देखते आश्रम तक पहुंच गए। घोड़ा बंधा देखा तो वह सफेद था। सिपाहियों ने कहा- घोडा तो यही है, पूरे संकेत मिल रहे हैं, पर रंग सफेद है। चोर से पूछा- यह घोड़ा कहां से लाए? चोर ने कहा- राजभवन से। सिपाहियों ने कहा- तुम सफेद घोड़ा लाए थे। चोर बोला- मैं तो काला घोड़ा लाया था, पर मुझे खुद आश्चर्य है कि यह सफेद कैसे हो गया? महाराज के पास बात पहुंची, यह सुनकर वे भी हैरान हो गए। ऐसा कौन मूढ है जो कि चोरी करता भी है और चोरी बताता भी है। लोग कहने लगे- वह सत्यवादी चोर है। सत्य के प्रभाव से ही वह पकड़ में नहीं आता। वो काला घोड़ा सफेद दिखने लग गया। चोर का हृदय परिवर्तित हो गया। उसने चोरी करना छोड़ दिया। राजा ने उसे अपने पास राजमहल में कर्मचारी बनाकर रख लिया। देखिए मूढ़ता का सुख भाव, एक चोर एक लोकमान्य पुरुष बन गया। अपनी बुद्धिमत्ता से गणेशजी बने प्रथम पूज्य डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने बताया एक बार बुद्धिमानों की परीक्षा हुई। जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा, वह देवताओं में सबसे प्रथम पूजा जाएगा। सभी देव अपने-अपने वाहन लेकर चले गए। ब्रह्माजी ने गणेशजी से पूछा कि आप क्या करोगे? तो गणेशजी ने कहा- यह तो समय बताएगा और गणेशजी ने माता-पिता की परिक्रमा कर ली। उन्हें प्रथम पूज्य बनाया गया। यह बुद्धि का प्रभाव है। इसीलिए या तो मूर्ख सुखी होता है या बुद्धिमान। बीच के लोग किंतु-परंतु में रहकर कष्ट भोगते हैं।